दोहरी प्रविष्टि प्रणाली
लेखाकरण में 'दोहरी प्रविष्टि प्रणाली या दोहरी खतान प्रणाली (Double-entry system) बहीखाता की एक पद्धति है। इसका नाम 'दोहरी प्रविष्टि' इसलिए है क्योंकि इसके अन्तर्गत किसी खाते की प्रत्येक प्रविष्टि के संगत किसी दूसरे खाते में एक विपरीत प्रविष्टि का होना जरूरी है।डबल-एंट्री प्रणाली बही-खाता पद्धति की एक प्रणाली है, जो प्राचीन 'इतालवी' पद्धति के पूर्व से विद्यमान है।प्राचीन ग्रीक और रोमन साम्राज्यों से पहले भारत में इसका अस्तित्व बताता है कि भारतीय व्यापारी इसे अपने साथ इटली ले गए, और वहाँ से डबल-एंट्री सिस्टम पूरे यूरोप में फैल गया। [1] इसे हिन्दी में 'द्वि-अंकन प्रणाली' भी कहते हैं।
परिचय
[संपादित करें]द्वि-अंकन प्रणाली (दोहरी लेखा प्रणाली) आधुनिक युग में बही खाते की द्वि-अंकन प्रणाली को सर्वश्रेष्ठ, सर्व-सामान्य और सर्वव्यापी माना जाता है क्योंकि यह आधुनिक, वैज्ञानिक और पूर्ण है। यह व्यापारी के समस्त उद्देश्यो की पूर्ति करती है। इसका जन्म पश्चिमी देशों में हुआ है, अतः इसे पाश्चात्य लेखांकन विधि भी कहा जाता है। इसे व्यापारिक लेखा-विधि-प्रणाली भी कहा जाता है, क्योंकि इस विधि के अनुसार रोकड़ और उधार के सौदों को लिपिबद्ध किया जाता है।
द्वि-अंकन प्रणाली की भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं जिसमें से कुछ निम्नलिखित हैं- कार्टर के अनुसार, ‘लेखांकन की आधुनिक पद्वति द्वि-अंकन प्रणाली के नाम से जानी जाती है। बहीखाते की द्वि-अंकन प्रणाली का आशाय बैयक्ति तथा अवैयक्तिक दोनों ही प्रकार के खातों से हैं।
कीलर द्वि-अंकन प्रणाली की निम्नलिखित परिभाषा देते हैं- ‘एक उद्यम मे लेखांकन की सर्वसामान्य प्रणाली द्वि-अंकन प्रणाली है। जैसा कि नाम से ही विदित होता है- प्रत्येक सौदे के दो लेखे लिए जाते है- एक डेबिट में और दूसरा क्रेडिट में।
प्रत्येक व्यापारिक सौदा जो द्रव्य (मुद्रा) अथवा द्रव्य के मूल्य में परिणित होता है, (अ) लाभ को देना और (ब) उस लाभ को प्राप्त करना। दुसरे शब्दों में व्यापारिक सौदा मूल्य के बदले अथवा द्रव्य के मूल्य में लदल-बदल का नाम है अथवा प्रत्येक व्यापारिक सौदा दो क्रियाओं को जन्म देता है- किसी मूल्यवान वस्तु को प्राप्त करना और किसी मूल्यवान वस्तु को देना। द्वि-अंकन प्रणाली के अनुसार इन दानों ही, प्राप्य पक्ष और देय पक्ष, पक्षों का लेखांकन किया जाता है। अतः यदि एक भवन मुकेश से खरीदा गया है तो भवन खाता प्राप्त करता है मुकेश का खाता देता है। इसलिए प्रत्येक सौदे के पूर्ण लेखांकन के लिए द्वि-प्रविष्टि (डबल इन्ट्री) होना आवश्यक है।
द्वि-अंकल प्रणाली के नियमों की स्पष्ट जानकारी के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि कुछ सौदे लगभग सब व्यापारों में समान होते हैं। ये समान सौदे निम्न है-
- (1) व्यापारी बहुत-से व्यापारिक व्यौहार (लेन-देन) करता है;
- (2) उसके पास कुछ सम्पत्तियां होनी चाहिए जिनमें या जिनकी सहायता से वह व्यापार करता है; और
- (3) उसे व्यापार चलाने के लिए कुछ खर्चें जैसे कार्यालय का किराया, वेतन, विज्ञापन आदि करने पड़ते हैं और उसके पास कुछ ऐसे स्रोत भी होने चाहिए जिनके द्वारा व्यापार को आय प्राप्त होती है।
अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि सम्पूर्ण व्यापारिक सौदों के पूर्ण लेखांकन के लिए निम्न खाते रखना आवश्यक हैं-
- (1) प्रत्येक व्यक्ति एवं संस्थान (फर्म) का खाता जिनमें व्यापारी को व्यवहार करना पड़ता है;
- (2) व्यापार की प्रत्येक सम्पत्ति और अधिकार का खाता; और
- (3) प्रत्येक व्यय एवं आय के स्रोत का खाता
वे खाते जो प्रथम समूह में आते हैं व्यकितगत खाते कहलाते हैं, दूसरे समूह के अन्तर्गत आने वाले खातों को सम्पत्ति खाते कहा जाता है और तीसरे समूह में आने वाले खातों के नाममात्र (के) खाते कहा जाता है।
द्वि-अंकन प्रणाली पृष्ठ को दो समान अर्द्ध-भागों में बंटती है। पृष्ठ के वाम पक्ष को डेबिट पक्ष तथा दक्षिण पक्ष को क्रेडिट पक्ष कहा जाता है। विभिन्न सौदों का प्रतिनिधित्व करने वाले पक्षों के इस प्रकार चयन में कोई न्यासंगत कारण नहीं था और क्रेडिट पक्ष बहुत सरलता से वाम पक्ष या डेबिट पक्ष दक्षिण पक्ष हो सकता था। वेनेसियन व्यापारियों ने जो द्वि-अंकन प्रणाली के सर्वप्रथम ज्ञात व्यापारी थे वाम पक्ष या डेबिट पक्ष को सम्पत्तियों के लिए और दूसरी ओर को पूंजी एवं देयताओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुन रखा था। अतः यह सब से वैसा ही चला आ रहा है।
खाता एक ऐसा अभिलेख है जिसमें एक विशेष पक्षकार (जो एक मनुष्य या मनुष्यत्व आरोपित पदार्थ हो सकता है) द्वारा दिए गये या प्राप्त किए गये प्रत्येक लाभ के द्रव्य मूल्य (कभी-कभी या द्रव्य मूल्य और मात्रा साथ-साथ) और वाम (वायें) पक्षों के दो अलग-अलग स्तम्भों में व्यवस्थित किया जाता है। प्रत्येक खाते में डेबिट पक्ष एवं क्रेडिट पक्ष होता है। यह क्रमशः खाते के वाम पक्ष एवं दक्षिण पक्ष के हाशिये पर ‘डेबिट’ और क्रेडिट’ लिखकर दर्शाया जाता है। डेबिट पक्ष की प्रत्येक प्रविष्टि के आगे ष्ज् वष्शब्द लिखा जाता है। इसका अर्थ यह है कि जिस खाते का अभिलेख तैयार किया जा रहा है वह उस खाते का जिसका कि नाम प्रविष्टि में लिखा गया है देनदार है। दूसरी तरफ क्रेडिट पक्ष की प्रविष्टि के आगे ष्ठलष् शब्द लिखा जाता है। इसका अर्थ यह है कि उस खाते को जिस खाते का अभिलेख तैयार किया जा रहा है इस खाते से जिसका कि नाम प्रविष्टि में लिखा गया है क्रेडिट किया गया है। खाते का नाम खाते के ऊपर मध्य में लिखा जाता है।
लाभ देने वाले पक्षकार के खाते को लेनदार कहा जाता है और जो पक्षकार इस (लाभ) को प्रप्त करता है उसके खाते को देनदार कहा जाता है। सामान्य रूप से खाते द्वारा प्राप्त लाभ की कीमत को खाते में वाम स्तम्भ में लिखा जाता है और यह कहा जाता है कि खाते की उतनी कीमत (रकम) से डेबिट किया गया। दूसरी ओर खाते द्वारा दिए गए लाभ की कमीत को खाते के दक्षिण स्तम्भ में लिखा जाता है और यह कहा जाता है कि खाते को उतनी कीमत (रकम) से क्रेडिट किया गया। इन्हें क्रमशः डेबिट और क्रेडिट प्रविष्टियां कहते हैं।
द्वि-अंकन प्रणाली के नियम
[संपादित करें]नियम या सिद्धांत से आशय उस सामान्य नियम से है जो व्यवहारों या सौदों की दिशानिर्देंश करने में सहायक होता है। वास्तव में ये सिद्धांत मुख्यतया तीन नियमों पर आधारित है इसे 'दोहरा लेखा प्रणाली के सिद्धान्त' भी कहा जाता है।
द्वि-अंकन प्रणाली के नियम खातों के अनुसार प्रयोग किये जाते हैं। दोहरा लेखा प्रणाली में खातों के तीन प्रकार होते हैं। एक विशेष खाते को डेबिट या क्रेडिट करने से पूर्व हमें यह देख लेना चाहिए कि व्यापारी द्वारा किये गए सौदे से कौन सी श्रेणी के खाते प्रभावित होते हैं यह जान लेने के पश्चात् निम्नलिखित नियमों का पालन किया जायगा।
व्यक्तिगत खाते (Personal Accounts)
[संपादित करें]व्यक्तिगत खातों के मामले में हम लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्ति या संस्थान का खाता उसके द्वारा प्राप्त लाभ से डेबिट करते हैं और लाभ देने वाले व्यक्ति या संस्थान का खाता उसके द्वारा प्रदत्त लाभ से क्रेडिट करते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं-
- (लाभ) पाने वाले को डेबिट करो (Debit the Receiver) ; और
- (लाभ) देने वाले को क्रेडिट करो (Credit the giver)।
सम्पति (वस्तुगत) खाते (Real Accounts)
[संपादित करें]सम्पत्ति खाते प्राप्ति से डेबिट और जाने वालें (outgoing) से क्रेडिट किए जाते हैं। अथवा
- व्यापार में जो आये उसे डेबिट करो (Debit what comes in); और
- व्यापार से जो जाये उसे क्रेडिट करो (Credit what goes out);
नाम मात्र (के) खाते (नॉमिनल एकाउण्ट्स)
[संपादित करें]प्रत्येक व्यय अथवा हानि की धन-राशि को डेबिट किया जाता है और प्रत्येक आय अथवा लाभ की धनराशि को क्रेडिट किया जाता है।
दूसरे शब्दों में -
- सभी व्ययों और हानियों को डेबिट करो (Debit all Expenses and Losses) और
- सभी आयों और लाभों को क्रेडिट करो (Credit all incomes and gains)।
यह जान लेना आवश्यक है कि यह नियम कभी नहीं बदलते और हर सम्भव दशा में इनका दृढ़ता से प्रयोग किया जायेगा। यह भी नोट किया जाना चाहिए कि उपर्युक्त प्रपंचों जैसे कि ‘देने वाला’ और ‘पाने वाला’, ‘आने वाला’ और ‘जाने वाला’ इत्यादि को मालिक के दृष्टिकोण से न जांचकर संस्थान के दृष्टिकोण से जांचा जाना चाहिए।
द्वि-अंकन प्रणाली के उपर्युक्त नियमों के अतिरिक्त लेखांकन की कुछ अवधारणएं तथा मान्यताएं हैं। वास्तविक बहीखाता तथा लेखांकन कार्य आरम्भ करने से पूर्व इनका पता होना आवश्यक है।
इन नियमों को कुछ अन्य प्रायोगिक तरीके से भी याद रख कर उपयोग में आसानी से लाया जा सकता है। इसके लिये सर्वप्रथम सौदा या लेनदेन कि प्रकृति को पहचान कर उनके दो रूपों को अलग करना आवश्यक है। सामान्यतः 90 प्रतिशत सौदे नगद लेनदेन से संबंधित होते है। अतः स्पष्ट है कि इनका एक रूप या पक्ष नगद होगा चूंकि नगद वास्तविक खाता है अतः नगद यदि प्राप्त हो रहा है तो नगद खाता डेबिट और उसका दूसरा पक्ष चाहे वह व्यक्तिगत, वास्तविक या अवास्तविक हो बिना विचार किये ही क्रेडिट किया जा सकता है और यदि नगद जा रहा है तो नगद खाता क्रेडिट एवं दूसरा पक्ष जो भी हो वह डेबिट होगा।
इसी प्रकार खर्चों एवं आय को भी सरलता से पहचाना जा सकता है। अतः समस्त प्रकार से आगम खर्चों को डेबिट एवं दूसरे पक्ष को चाहे जो भी हो क्रेडिट होगा यदि एक पक्ष आय या लाभ से संबंधित है तो उसे क्रेडिट एवं विरूद्ध पक्ष डेविट होगा। साथ ही जो भी वस्तु या संपत्ति खरीदी जाती है तो उसे डेबिट करेगें एवं बेची जाती तो उसे क्रेडिट करेंगे एवं उसके विरूद्ध पक्ष को डेविट या क्रेडिट करेंगे।
उदाहरण एवं डेबिट/क्रेडिट के नियमों का विस्तृत विवरण निम्नानुसार हैः-
क्रमांक | लेखों के प्रकार | उदाहरण | डेबिट | क्रेडिट | अंतिम लेखों में प्रविष्टि |
---|---|---|---|---|---|
1. | व्यक्तिगत खाते | संस्थाएँ एवं व्यक्ति | लाभ प्राप्त करने वाले को | लाभ देने वाले को | तुलन पत्र में |
2. | वास्तविक खाते | वस्तुएँ सम्पत्तियाँ रोकड़ सहित | आने पर (वस्तु) सम्पत्ति को | जाने पर (वस्तु) सम्पत्ति को | (वस्तु) आय
व्यय खाते में, एवं सम्पत्तियाँ तुलन पत्र में |
3. | नाम मात्र के खाते | सेवाओं से सम्बंधित ; जैसे-वेतन, मजदूरी, किराया इत्यादि | सेवाओं के लिए भुगतान किया है तो सेवाओं को (व्ययं एवं हानि) | सेवाओं के लिए प्राप्त हुआ है तो सेवाओं को (आय एवं लाभ) | आय-व्यय खाते में |
दोहरी प्रविष्टि प्रणाली के प्रमुख भाग
[संपादित करें]दोहरा लेखा प्रणाली के प्रमुख भाग निम्नलिखित है। इन्हें 'दोहरा लेखा प्रणाली की सीढ़ियां' या 'लेखाकर्म का ढांचा' भी कहा जाता है।
- (1) प्रारंभिक लेखा या रोजनामचा (जर्नल)
- (2) वर्गीकरण
- (3) तलपट (ट्रायल बैलेंस) बनाना
- (4) अंतिम लेखे (Final accounts)
- (क) निर्माण खाता या व्यापार खाता
- (ख) लाभ हानि खाता या आय व्यय खाता
- (ग) स्थिति विवरण (चिट्ठा)
लाभ देने वाले पक्षकार के खाते को लेनदार कहा जाता है और जो पक्षकार इस (लाभ) को प्रप्त करता है उसके खाते को देनदार कहा जाता है। सामान्य रूप से खाते द्वारा प्राप्त लाभ की कीमत को खाते में वाम स्तम्भ में लिखा जाता है और यह कहा जाता है कि खाते की उतनी कीमत (रकम) से डेबिट किया गया। दूसरी ओर खाते द्वारा दिए गए लाभ की कमीत को खाते के दक्षिण स्तम्भ में लिखा जाता है और यह कहा जाता है कि खाते को उतनी कीमत (रकम) से क्रेडिट किया गया। इन्हें क्रमशः डेबिट और क्रेडिट प्रविष्टियां कहते हैं।RR
- ↑ B. M. LALL, निगम. "Bahi-Khata: The Pre-Pacioli Indian Double-entry System of Bookkeeping". https://onlinelibrary.wiley.com. https://onlinelibrary.wiley.com. अभिगमन तिथि 12 जनवरी 2022.
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